जन्मदिवस विशेष : निर्गुण संतों में अग्रिम संत नामदेव

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निर्गुण संतों में अग्रिम संत नामदेव वस्तुत: उत्तर-भारत की संत परंपरा के प्रवर्तक माने जाते हैं। मराठी संत-परंपरा में तो वह सर्वाधिक पूज्य संतों में हैं। मराठी अभंगों (विशेष छंद) के जनक होने का श्रेय भी उन्हीं को प्राप्त है। उत्तर-भारत में विशेषकर पंजाब में उनकी ख्याति इतनी अधिक रही कि सिखों के प्रमुख पूज्य ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब में उनकी वाणी संकलित हैं, जो प्रतिदिन अब भी बड़ी श्रद्धा से गाई जाती है।

संत नामदेव संत कबीर, रैदास, नानक, दादू मलूककी निर्गुण भक्तिधारा के प्रवर्तक होने के कारण स्वयं भी मूर्ति पूजा, कर्मकांड, जाति-पांति व सांप्रदायिकता के कठोर निंदक रहे हैं। परमात्मा की प्राप्ति के लिए संत-सद्गुरु की कृपा को अनिवार्य मानते हैं :

"संत सूंलेना संत सूंदेना,
संत संगति मिली दुस्तर तिरना
संत की छाया संत की माया,
संत संगति मिलिगोविंद पाया॥

संत नामदेव का जन्म 26 अक्तूबर,1270 ई.को महाराष्ट्र में नरसीबामनी नामक गांव में हुआ। इनके पिता का नाम दामाशेट था और माता का नाम गोणाई था। कुछ विद्वान इनका जन्म स्थान पण्ढरपुर मानते हैं। दामाशेट बाद में पण्ढरपुर आकर विट्ठल की मूर्ति के उपासक हो गए थे। इनका पैतृक व्यवसाय दर्जी का था। अभी नामदेव पांच वर्ष के थे। तब इनके पिता विट्ठल की मूर्ति को दूध का भोग लगाने का कार्य नामदेव को सौंप कर कहीं बाहर चले गए।

बालक नामदेव को पता नहीं था कि विट्ठल की मूर्ति दूध नहीं पीती, उसे तो भावनात्मक भोग लगवाया जाता है। नामदेव ने मूर्ति के आगे पीने को दूध रखा। मूर्ति ने दूध पीया नहीं, तो नामदेव हठ ठानकर बैठ गए कि जब तक विट्ठल दूध नहीं पीएंगे, वह वहां से हटेंगे नहीं। कहते हैं हठ के आगे विवश हो विट्ठल ने दूध पी लिया।

बडा होने पर इनका विवाह राजाबाई नाम की कन्या से कर दिया गया। इनके चार पुत्र हुए तथा एक पुत्री। इनकी सेविका जानाबाई ने भी श्रेष्ठ अभंगों की रचना की। पढंरपुर से पचास कोस की दूरी पर औढिया नागनाथ के शिव मंदिर में रहने वाले विसोबा खेचर को इन्होंने अपना गुरु बनाया।

संत ज्ञानदेव और मुक्ताबाई के सानिध्य में नामदेव सगुण भक्ति से निर्गुण भक्ति में प्रवृत्त हुए। अवैद एवं योग मार्ग के पथिक बन गए। ज्ञानदेव से इनकी संगति इतनी प्रगाढ हुई कि ज्ञानदेव इन्हें लंबी तीर्थयात्रा पर अपने साथ ले गए और काशी, अयोध्या, मारवाड (राजस्थान) तिरूपति, रामेश्वरम आदि के दर्शन-भ्रमण किए।

सन् 1296 में आलंदी में ज्ञानदेव ने समाधि ले ली और तुरंत बाद ज्ञानदेव के  बड़े भाई तथा गुरु ने भी योग क्रिया द्वारा समाधि ले ली। इसके एक महीने बाद ज्ञानदेव के दूसरे भाई सोपान देव और पांच महीने पश्चात मुक्तबाई भी समाधिस्थ हो गई। नामदेव अकेले हो गए। उन्होंने शोक और विछोह में समाधि के अभंग लिखे।

इस हृदय विदारक अनुभव के बाद नामदेव घूमते हुए पंजाब के भट्टीवाल स्थान पर पहुंचे। फिर वहां घुमान (जिला गुरदासपुर) नामक नगर बसाया। तत्पश्चात मंदिर बना कर यहीं तप किया और विष्णु स्वामी, परिसाभागवते, जनाबाई, चोखामेला, त्रिलोचन आदि को नाम-ज्ञान की दीक्षा दी। बाद में अस्सी वर्ष की आयु में पढंरपुर में विट्ठल के चरणों में आषाढ वदीत्रो दशी संवत 1407 तदानुसार 3 जुलाई 1350 ई. को पण्ढरपुर में ही समाधि ली।

संत नामदेव अपनी उच्चकोटि की आध्यात्मिक उपलब्धियों के लिए ही विख्यात हुए। चमत्कारों के सर्वथा विरुद्ध थे। वह मानते थे कि आत्मा और परमात्मा में कोई अंतर नहीं है तथा परमात्मा की बनाई हुई इस भू (भूमि तथा संसार) की सेवा करना ही सच्ची पूजा है। इसी से साधक भक्त को दिव्य दृष्टि प्राप्त होती है। सभी जीवों का सृष्टा एवं रक्षक, पालनकर्ता बीठलराम ही है, जो इन सब में मूर्त भी है और ब्रह्मांड में व्याप्त अमू‌र्त्त भी है। इसलिए नामदेव जी कहते हैं :

"जत्रजाऊं तत्र बीठलमेला।
बीठलियौराजा रांमदेवा॥"

सृष्टि में व्याप्त इस ब्रह्म-अनुभूति के और इस सृष्टि के रूप आकार वाले जीवों के अतिरिक्त उस बीठल का कोई रूप, रंग, रेखा तथा पहचान नहीं है। वह ऐसा परम तत्व है कि उसे आत्मा की आंखों से ही देखा अनुभव किया जा सकता है। संत नामदेव का वारकरी पंथ आज तक उत्तरोत्तर विकसित हो रहा है। मंदिर-मस्जिद, जात-पात आदि के भेदभाव से ऊपर उठकर गोविंद का नाम स्मरण करना ही नामदेव की सबसे बडी सीख है :

"सिमिर सिमिर गोविंद
भजुनामा तरसिभव सिंधु॥"

अस्सी वर्ष की आयु तक इस संसार में गोविंद के नाम का जप करते-कराते सन् 1350 ई. में नामदेव स्वयं भी इस भवसागर से पार चले गए। उनका सन्देश है कि इस धरती पर जीवों के रूप में विचरने वाले गोविंद की सेवा ही सच्ची परमात्म सेवा है।


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