दो नंबरियों के सबसे बड़े मददगार और 'पार्टनर' हैं ये 'भगवान'
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राजस्थान के चित्तौडग़ढ़ जिले की निम्बाहेड़ा तहसील में बसा एक गांव मंडफिया, जहां स्थित है राजस्थान और मालवा का प्रख्यात तीर्थ स्थल सांवलियाजी। यहां, भगवान कृष्ण का 400 वर्ष पुराना अत्यन्त भव्य और विशाल मन्दिर है और मन्दिर में विराजित भगवान को 'सांवलिया सेठ' के नाम से जाना-पहचाना और पुकारा जाता है।
मान्यताओं के अनुसार 'सांवलिया सेठ' को सबकी मनौतियां पूरी करने के लिए जाना जाता है, लेकिन कई तरह के मादक पदार्थों की तस्करी करने वाले तस्करों में ये न केवल विशेष लोकप्रिय हैं, बल्कि उनके भरोसेमन्द और सबसे बड़े मददगार भी है। इतने भरोसेमंद कि वे इन्हें अपना पार्टनर बनाए हुए हैं। भरोसे की पराकाष्ठा यह है कि 'सांवलिया सेठ' को इन अफीम तस्करों का भागीदार बनना मंजूर है या नहीं। यह जाने की जरूरत भी अनुभव नहीं होती।
अभियान से पहले तय होता है हिस्सा : तस्करी अभियान पर जाने से पहले अथवा अभियान शुरू करने से पहले, ये तस्कर इस मन्दिर पर दर्शन के लिए आते हैं और मनौती मांगने के साथ ही अपने अभियान की सफलता पर 'सांवलिया सेठ' की भागीदारी भी तय करते हैं। यह भागीदारी कभी आय का एक निश्चित प्रतिशत होती है तो कभी गांजा-अफीम की निश्चित मात्रा। स्वैच्छिक रूप से, एकतरफा तय की गई इस भगीदारी को निभाने में ये तस्कर बड़ी ईमानदारी बरतते हैं और अभियान की सफलता पर तयशुदा नगद रकम या गांजा-अफीम 'सांवलिया सेठ' की दान पेटी में डालते हैं। यह दान पेटी प्रत्येक माह की अमावस्या से एक दिन पहले सबके सामने खोली जाती है। इस दान-पेटी से निकलने वाली रकम करोड़ों रुपए होती है, जिसमें लगभग हर महिने बढ़ोतरी होती रहती है। नकदी के अलावा सोने-चांदी से बनी वस्तुएं, कई तरह के मादक पदार्थों के साथ-साथ कभी-कभी चैक और गाडिय़ों की चाबियां भी इस दान पेटी से निकलती है। इस लिहाज से यह मन्दिर मालवा, मेवाड एवं मारवाड का 'तिरूपति' बनता जा रहा है।
पट्टे के लिए सांवलिया का भरोसा : इलाके में अफीम की खेती को ना केवल लाभदायक सौदा माना जाता है, बल्कि यह सामाजिक प्रतिष्ठा का भी एक महत्वपूर्ण पैमाना है। अफीम उत्पादक किसान को सम्पन्न माना जाता है। जिसके पास जितनी ज्यादा अफीम खेती का पट्टा (लाइसेंस), वह उतना अधिक हैसियतदार। पट्टे के आधार पर किसान के द्वारा सरकार को दी जाने वाली अफीम की न्यूनतम मात्रा का निर्धारण सरकार करती है, जो वास्तविक उपज से कम ही होती है। सरकार को अफीम जमा करा देने के बाद जो अफीम बचती है, वह तस्करी के जरिए बेच दी जाती है। इसमें खतरा तो अच्छा-खासा होता है, लेकिन लाभ उससे भी ज्यादा मोटा होता है। इसलिए, प्रत्येक किसान कम से कम 10 आरी (भूमि रकबे की एक इकाई) का पट्टा हासिल करने के लिए जी-जान लगा देता है। पट्टा जारी करने के प्रावधान इतने स्पष्ट और सख्त हैं, कि इसमें राजनीतिक सिफारिश नहीं चल पाती है। ऐसे में किसानों और तस्करों को 'सांवलिया सेठ' का ही भरोसा होता है। मान्यता है कि 'सांवलिया सेठ' को 'पार्टनर' बनाने पर शत-प्रतिशत सफलता सुनिश्चित है। ऐसे में पट्टा हासिल करने के लिए किसान सांवलिया की शरण में आते हैं और पट्टे के लिए मनौती मांगने के साथ ही उनका हिस्सा भी तय करते हैं।
आज भी मूल स्वरूप में है मुख्य स्थान : किवदंतियों के अनुसार सन 1840 मे भोलराम गुर्जर नाम के ग्वाले को एक सपना आया की भादसोड़ा-बागूंड के छापर मे 3 मूर्तियां ज़मीन मे दबी हुई है। जब उस जगह पर खुदाई की गई तो भोलराम का सपना सही निकला और वहां से 3 एक जैसे मूर्तियां निकली, जो बहुत ही मनोहारी थी। इन मूर्तियों मे सांवले रूप मे श्रीकृष्ण भगवान बांसुरी बजा रहे है। इनमे से एक मूर्ति मंडफिया ग्राम ले जाई गई और वहां पर मंदिर बनाया गया। दूसरी मूर्ति पास के एक गांव भादसोड़ा ले जाई गई और वहां पर भी मंदिर बनाया गया। तीसरी मूर्ति को प्राकट्य स्थल पर ही मंदिर बना कर स्थापित कर दिया गया। मंडफिया जाते समय यह स्थान रास्ते में ही चौराहे पर आता है, जिसे सांवलिया प्राकट्य स्थल के नाम से जाना जाता है।
ग्वाले के वंशज खोलते हैं पेटी : बताया जाता है इस मंदिर में रखी दान-पेटी को आज भी उस ग्वाले भोलाराम के वंशज ही खोलते हैं और एक मुट्ठी भरकर सबसे पहले सांवलिया के लिए निकाला जाता है और उसके बाद शेष रकम ट्रस्ट में जाती है। कुछेक बार ट्रस्ट के लोगों द्वारा भी इस दान-पेटी को खोलने के प्रयास किए गए , लेकिन वे इसे खोलने में सफल नहीं हो सके। तभी से इस दान-पेटी को खोलने का कार्य उस ग्वाले के वंशज के द्वारा ही किया जाता है।
