दीपावली पर पूरे शहर को अपना परिवार मानकर निभाई जाती है यह अनूठी परंपरा

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केकड़ी (अजमेर)। हमारे भारत देश में त्यौहारों और अन्य कई मौकों पर तरह-तरह की विभिन्न परंपराएं निभाई जाती है, जो कहीं आकर्षक होती है और कहीं बहुत ही अनूठी। त्यौहारों के देश भारत में सालभर में ऐसे कई मौके आते हैं, जब इस तरह की परंपराओं का निर्वहन किया जाता है। इन्हीं त्यौहारों में से एक और हिंदु धर्म का सबसे बड़ा त्यौहार माने जाने वाला पर्व है दीपावली।

भारतीय साल के अनुसार कार्तिक माह की अमावस्या के दिन मनाए जाने वाले इस त्यौहार पर लोग अपने-अपने घरों और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों में एक और जहां साफ-सफाई कर उसे नए रंग-रौगन कर सजाते हैं। वहीं घरों और दुकानों में रखे पुराने सामानों की जगह पर नए सामान लाते हैं, वहीं दूसरी ओर धन की देवी माता लक्ष्मी की पूजा-अर्चना कर उसका वंदन करते हैं और अपने-अपने घरों में माता लक्ष्मी का आह्वान करते हैं।

मान्यताओं के अनुसार मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम अपने वनवास काल के दौरान लंका के राजा रावण का वध करने के बाद श्रीराम अपने घर अयोध्या लौटे थे और वहां उनके लौटने की खुशी में पूरे राज्य में खुशियां मनाई गई थी। लोगों ने अपने-अपने घरों में दीपक जलाकर श्रीराम का स्वागत किया। उस दिन को आज देशभर में दीपावली के रूप में मनाया जाता है।

लोग अपने-अने घरों में आज भी दीपक जलाकर दीपमाला बनाते हैं और आतिशबाजी कर श्रीराम के लौटाने की खुशी मनाते हैं। दीपावली के दूसरे दिन को गोवद्र्धन पूजन के रूप में मनाया जाता है, जिसमें अपने घरों के बाहर गाय के गोबर से गोवद्र्धन बनाकर उसका पूजन किया जाता है। इसी दिन शाम के समय कई जगहों पर बेलों का पूजन किया जाता है। 

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बेलों का पूजन राजस्थान मे अजमेर जिले के उपखंड केकड़ी में बड़े ही अनूठे तरीके से किया जाता है, जिसमें खेतों में किसानों के साथी माने जाने वाले वाहन ट्रेक्टर और बेलों का पूजन किया जाता है। पूजा होने के बाद जहां ट्रेक्टर को फूलों और मालाओं से सजाया जाता है, वहीं बेलों के भी रंग-बिरंगे छापे लगाकर सजाया जाता है। इसके बाद बेल पालने वाले किसान अपने-अपने बेलों को पूरे शहर के निमित किये जाने वाले कार्य के लिए लेकर जाते हैं। पूरे शहर को अपना परिवार मानकर किए जाने वाला यह पुनित कार्य ही सबसे अनूठी परंपरा है, जिसे 'घासभैरूं' के नाम से जाना जाता है।

इस परंपरा में भैरूंजी के रूप में पूजे जाने वाले एक बड़े से शिलाखंड़ को पूरे शहर में घुमाया जाता है, ताकि शहर के किसी घर में किसी भी तरह की कोई आपदा-विपदा हो तो भैरूंजी उसे समाप्त कर अपने साथ ही ले जाते हैं और शहर को तमाम विपदाओं से बचाया जा सके। इस परंपरा में सबसे अचरज वाली बात यह है कि भैरूंजी के इस शिलाखंड की इस तरह से साल में सिर्फ इसी दिन पूजा जाता है और इस दिन के अलावा अगर कोई तीन-चार बलिष्ठ आदमी इसे उठाने का प्रयास करे तो वे इसे उठा सकते हैं, लेकिन इस दिन यह शिलाखंड इतना भारी हो जाता है कि इसे कई जोड़ी बेलों की मदद के साथ-साथ शहर के कई किसानों के द्वारा खींचे जाने पर भी यह बड़ी मुश्किलों से खींचा जाता है।

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विशेष रूप से इसी दिन इस शिलाखंड के इतना भारी होने के पीछे भी एक अनोखी कहानी है। शहर में रहने वाले तमाम बुजुर्ग बताते है कि भैरूंजी के इस शिलाखंड़ को अपने स्थान से उठाए जाने से पहले काफी देर तक यहां इनके भजन-कीर्तन होते हैं और भैरूंजी के स्थान वाली सभी चढ़ाई जाने वाली शराब के समान ही श्रद्धालु इस पर भी शराब चढ़ाते हैं। यह सिलसिला काफी देर तक चलता है और ऐसा माना जाता है कि काफी शराब चढ़ाए जाने की वजह से ही भैरूंजी माने जाने वाले इस शिलाखंड का वजन बढ़ जाता है, जिसे बेलों और कई आदमियों की मदद से ही खींचा जा सकता है, इसे खेचने के लिए लगाए गए बेल भी इसे खींचते हुए भाग नहीं पाते हैं।

इसके लिए भी शहरवासियों के द्वारा एक युक्ति काम में ली जाती है, जिसमें बेलों के आसपास पटाखे फैंक जाते हैं, ताकि वे पटाखों की आवाज से डरकर भागे और भैरूंजी के इस शिलाखंड को आगे बढ़ाए। इन बुजुर्गों का कहना है कि पहले सद्भावना के साथ इस तरह पटाखे फैंके जाते थे, जिससे ये बेल डर से भागते थे और भैरूंजी का पूरे शहर में घुमाते हुए सुबह करीब तीन-चार बजे वापस अपने स्थान पर रख दिया जाता था।

'गंगा-जमुना' की होती है करोड़ों की बिक्री 

दीपावली के त्यौहार पर यूं तो कई तरह की रंग-बिरंगी आतिशबाजी वाले पटाखे बेचे जाते हैं, लेकिन यहां दीपावली से ज्यादा पटाखों की बिक्री दीपावली के दूसरे दिन घास-भैरूं की परंपरा के लिए होती है। खास बात यह है कि इस घास-भैरूं में सिर्फ एक ही पटाखे फोड़े जाते है, जिसे 'गंगा-जमुना' कहा जाता है। इस पटाखें को जलाने के बाद कुछ देर तक तो इसमें फव्वारें निकलते है, उसके बाद जोरदार आवाज के साथ ब्लास्ट होता है। घास-भैरूं के दौरान इस पटाखे को साधारण तरीके से नहीं फोड़ा जाता है, बल्कि इसे जलाकर फव्वारें निकलते हुए को भीड़ के ऊपर फैंकते हैं। यह तरीका बिल्कुल वैसे ही है, जैसे कोई बम फैंका जाता है। घास-भैरूं के दौरान विशेष रूप में 'गंगा-जमुना' का उपयोग किया जाता है, जिसके चलते इस दिन इस पटाखे की मांग में जबरदस्त उछाल आ जाता है और इसकी कीमत करीब तीन-चार गुना तक वसूली जाती है। इस लिहाज से केवल घास-भैरूं वाले दिन ही इस पटाखे की बिक्री करोड़ो रुपए का आंकड़ा पार कर जाती है।

अब खराब होने लगा 'माहौल'

इस बात पर अफसोस जताते हुए यहां रहने वाले कई बुजुर्गों ने बताया कि, 'अब पहले जैसी बात नहीं रही, पहले और अब में बहुत फर्क आ गया है। बेलों को आगे बढ़ाने के लिए फैंके जाने वाले पटाखे पहले सद्भावना से फैंके जाते थे लकिन अब लोग पटाखे फैंके जाने के असली मकसद को भूलते जा रहे हैं और शहर के भलाई के निमित किए जाने चाले इस पुनित कार्य में बहुत से शरारती तत्व शामिल होने लगे हैं, जो बेलों के आसपास वाले स्थान की जगह के बजाय लोगों पर पटाखे फैंकते हैं, जिससे कई बार अनहोनी हो जाती है और बहुत से लोग जल भी जाते हैं। घासभैरूं की इस परंपरा के निर्वहन में पुलिस-प्रशासन भी मुस्तैद रहता है और पुलिस के कई जवानों को इसमें सुरक्षा के लिए लगाया जाता है, जिन पर भी ये शरारती तत्व जानबुझकर पटाखे फैंकते है, जिससे माहौल भी खराब होने लगा है।


बीते कई सालों में इस तरह की हरकतों से कई लोग और कई पुलिस वाले घायल हो चुके हैं। अब पुलिस वाले पहले से और भी अधिक सतर्क रहते हैं और आसपास के इलाकों से भी प्रलिस बुलाई जाती है और कई पुलिस वालों को सादा वर्दी में भी तैनात किया जात है, जिससे शरारती तत्वों पर उनके करीब रहकर उन पर कड़ी नजर बनाई रखी जी सके और उनके द्वारा किए जाने वाले किसी भी हरकत पर उन्हें तुरंत दबोचा जा सके।



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