मिट्टी के दीये से करें अपने तथा किसी और का भी घर रोशन
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जयपुर। दीपावाली का मतलब ही दीपों का त्यौहार होता है, बिना दीपक के इस पर्व की कल्पना नहीं की जा सकती। आज से कुछ सालों पहले तक था भी कुछ ऐसा ही था, जब हर घर में दीये जलाए जाते थे। दीप जलते थे, किसी के यहां 25 तो किसी यहां 100। लोग इस दिन मिट्टी के दीयों को जलाकर अद्भूत सुख की अनुभूति प्राप्त करते थे। उस वक्त दीये बनाने वाला समाज भी इस त्यौहार की बाट 365 दिन जोहता था, लेकिन अब ये परपंरा महज औपचारिता में दायरे में सिमटती जा रही है। वजह साफ है चाईनीज लाईटिंग और मोम की तड़क-भड़क। इस तड़क भड़क और चाइनीज लाईटिंग ने दीपावली के लिए दीए बनाने वाले समाज के अस्तित्व पर संकट खडा कर दिया है।
अगर बात करतें पौराणिक महत्व की तो जिस दिन भगवान राम 14 वर्ष का वनवास काटकर अयोध्या लौटे थे, उस रात कार्तिक मास की अमावस्या थी, यानि आकाश में चांद दिखाई नहीं दे रहा था। ऐसे में अयोध्यावासियों ने अपने भगवान राम के लिए स्वागत में पूरी अयोध्या नगरी को प्रकाश से जगमग कर दिया। इसी दिन से मिट्टी के दियों के साथ पूरी आस्था के साथ दीपावली का त्यौहार मनाया जाने लगा। धीरे-धीरे वक्त के बीतने के साथ ही दीपावली के त्योहार पर खुशिया मनाने का तरीका भी बदलता गया।
सालों साल चले आ रहे इस त्यौहार को आज भी लोग धूमधाम से मनाते आ रहे हैं, लेकिन इन सबके बीच पाश्चात्य संस्कृति ने पैर पसारे और लोग धीरे-धीरे चाईनिज, जैल सहित अन्य सामग्रियों के तैयार दीये काम में लेने लगे। आज लोग इसी डगर पर है, हर कोई इस चकाचैंध में खोना चाहता है, शहर में इन लाईटिंग और मोम वालें दीयों की भरमार है। आज हम भी भले ही इन दीयों को ज्यादा अपनाने लगे हो, लेकिन इस सीधा असर पड़ा है कि उन घरों पर जो बरसों बरस हर किसी के घर को इस दिन गमगम करते थे। इन परिवारों की हालत आज बहुत पतली हो गई है।
दीपावली के त्योंहार पर बाजार में रोशनी से जुडी खरीददारी करने जा रहे ग्राहक भी मानते है कि ये शुभ संकेत नहीं है। मिट्टी के दीयों से घर रोषन के साथ ही उनका आध्यात्मिक महत्व था लेकिन नई पीढ़ी ने अलग ट्रैक तैयार कर लिया। हालांकि मोम के दीयों की जगमगाहट में आमजन को पैसे भी ज्यादा काटने पड़ रहे है आज 50 रुपए से लेकर एक हजार तक मोम के दीये बाजारों की शान बढ़ा रहे है। दम तोड़ते मिट्टी के दीयों के लिए लोगों का पहल करनी होगी, अन्यथा वो दिन दूर नहीं जब मां लक्ष्मी की थाली में भी ये दीया देखने को न मिलें।
अगर बात करतें पौराणिक महत्व की तो जिस दिन भगवान राम 14 वर्ष का वनवास काटकर अयोध्या लौटे थे, उस रात कार्तिक मास की अमावस्या थी, यानि आकाश में चांद दिखाई नहीं दे रहा था। ऐसे में अयोध्यावासियों ने अपने भगवान राम के लिए स्वागत में पूरी अयोध्या नगरी को प्रकाश से जगमग कर दिया। इसी दिन से मिट्टी के दियों के साथ पूरी आस्था के साथ दीपावली का त्यौहार मनाया जाने लगा। धीरे-धीरे वक्त के बीतने के साथ ही दीपावली के त्योहार पर खुशिया मनाने का तरीका भी बदलता गया।
सालों साल चले आ रहे इस त्यौहार को आज भी लोग धूमधाम से मनाते आ रहे हैं, लेकिन इन सबके बीच पाश्चात्य संस्कृति ने पैर पसारे और लोग धीरे-धीरे चाईनिज, जैल सहित अन्य सामग्रियों के तैयार दीये काम में लेने लगे। आज लोग इसी डगर पर है, हर कोई इस चकाचैंध में खोना चाहता है, शहर में इन लाईटिंग और मोम वालें दीयों की भरमार है। आज हम भी भले ही इन दीयों को ज्यादा अपनाने लगे हो, लेकिन इस सीधा असर पड़ा है कि उन घरों पर जो बरसों बरस हर किसी के घर को इस दिन गमगम करते थे। इन परिवारों की हालत आज बहुत पतली हो गई है।
बढ़ रही है बेरूखी
दीये बनाने वाले इन परिवारों का कहना है कि मिट्टी के दीयों के प्रति बेरूखी से उन पर तलवार लटक गई है। आज वो बेरोजगारी तक का सामना कर रहे है। इन दीयों की कम खरीद पर इन परिवारों पर रोजी-रोटी का संकट तक मंडराने लगा है। इन परिवारों की मानें तो अब तो उनके बच्चें भी इस काम से छुटकारा पाने चाहते है।दीपावली के त्योंहार पर बाजार में रोशनी से जुडी खरीददारी करने जा रहे ग्राहक भी मानते है कि ये शुभ संकेत नहीं है। मिट्टी के दीयों से घर रोषन के साथ ही उनका आध्यात्मिक महत्व था लेकिन नई पीढ़ी ने अलग ट्रैक तैयार कर लिया। हालांकि मोम के दीयों की जगमगाहट में आमजन को पैसे भी ज्यादा काटने पड़ रहे है आज 50 रुपए से लेकर एक हजार तक मोम के दीये बाजारों की शान बढ़ा रहे है। दम तोड़ते मिट्टी के दीयों के लिए लोगों का पहल करनी होगी, अन्यथा वो दिन दूर नहीं जब मां लक्ष्मी की थाली में भी ये दीया देखने को न मिलें।