आन्दोलन : हाय रे सरकार की 'मजबूरियां'...

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मुबारक हो ! राजस्थान की सात करोड़ मजबूर जनता को। पिछले आठ दिनों से राजस्थान को देश के मुख्य भागों से जोडऩे वाले रेल और सड़क मार्ग सिर्फ बाधित ही नहीं बल्कि किसी भी समय सुरक्षा प्रहरियों के संगीनों से गोलियों की आवाजों के बीच आशंकित था। ईश्वर ने गुर्जर नेताओं और मजबूर सरकार के प्रतिनिधियों को सद्बुद्धि दी कि राजस्थान की पावन धरती एक बार फिर कलंकित होने से बच गई। बेगुनाह और भोलेभाले आन्दोलनकारियों की लाशों एवं सामूहिक चिताओं की लपटों के दृश्य टीवी न्यूज चैनलों के कैमरों से बच गये।

मुबारक उन भोलीभाली माताओं, बहनों और सुहाग की रक्षा की पुकार करने वाली उन माताओं की गोद, बहनों की राखी और सिन्दूर के सुहाग की रक्षा देवनारायण भगवान ने की, जिनके बेटे-भाई और पति पुलिस के संगीन पहरों में रेल पटरियों के क्लिप उखाड़ रहे थे। नेशनल हाईवे के डिवाईडर की रैलिंग तोड़ रहे थे और इससे आगे बढ़कर सड़क चौराहों को जाम कर रहे थे। मुबारक हो गुर्जर आन्दोलन के उन नेताओं को, जिनके बेटे-बेटियां-पोता-पोती और परिवार के लोग दिल्ली-गुडगांव-नौएडा के गगनचुम्बी बिल्डिंगों के एयरकंडिशन फ्लैटों से निरन्तर मोबाइल पर 'सम्भलकर' रहने की हिदायतों के साथ इन नेताओं की चिन्ता कर रहे थे।

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राजस्थान की आबादी का मात्र 8 प्रतिशत 55 से 60 लाख गुर्जर समाज (आंकड़े गूगल के अनुसार) और इसमें से भी मात्र 5 प्रतिशत यानी तीन लाख गुर्जर ही पटरियों, सड़क चौराहों और आन्दोलन को भीड़ में बदलने में सक्रिय बताये गये। लेकिन 163 विधायकों के बहुमत वाली भाजपा की वसुन्धरा सरकार, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के चाणक्य, शिवसेना-विश्व हिन्दू परिषद् के जांबाज और खूंखार-उग्र नौजवानों की फौज, हिन्दू समाज की रक्षा के अन्तराष्ट्रीय नेता प्रवीण तोगडिय़ा, आरएसएस के सर-संघचालक मोहन भागवत, जो हर दिनों हर पखवाड़े राजस्थान के किसी महानगर में पथ-प्रदर्शन करते दिखाई देते हैं। इनमें से कोई तो साहस करता एक बार सिकन्दरा और पीलूपुरा की पटरियों पर पथ संचलन करने का, तोगडिय़ा जी देशभक्ति के भाषण ही सुना आते। क्या गुर्जरों में आरएसएस से जुड़े लोग नही हैं? शिवसेना-विश्वहिन्दू परिषद् से जुड़े गुर्जर भी नहीं है? क्या सभी गुर्जर कांग्रेसी मान लिये गये? सचिन और गहलोत के समर्थक थे? 163 विधायकों में से मात्र तीन राजेन्द्र राठौड़, भड़ाना और चतुर्वेदी ही सरकार का प्रतिनिधित्व करते रहे। बाकी भाजपा विधायक, संघ के नेता, शिवसेना, बजरंग दल, विश्व हिन्दू परिषद् के राज्य स्तर के नेताओं से पीलूपुरा की पटरियों पर बैठे अपने ही भाईयों से समझाईश करने का साहस नही जुटा पाये।

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हिन्दू धर्म के रक्षक इन नेताओं को सिकन्दरा के जाम में फंसी 'एम्बुलेन्स' के सायरन की आवाजों के साथ बेगुनाह मरीज की टूटती सांसों और परिवार की दर्दभरी चीख भी सुनाई नहीं दी। बदन को झुलसाती 47 डिग्री गर्मी में गोद में बच्चा और सिर पर सामान के बैग लिये कई किलोमीटर तक लडख़ड़ाते कदमों से बसों तक पहुंच रही मासूम और उच्च परिवार की औरतों के टीवी दृश्य देखकर भी हमारे नेता गुर्जरों को समझाने नहीं पहुंच पाये।

आजादी के बाद पहली बार राजस्थान में अभुतपूर्व बहुमत और केन्द्र में भी अपनी ही पार्टी वाली सरकार को गुर्जर आन्दोलन के सामने मजबूर, बेबस और लाचार हालत में देखकर शर्मिंदगी के साथ असुरक्षित भविष्य भी दिखाई दिया। हजारों जवान पुलिस के, अर्धसैनिक बलों की टुकडियों के पहुंचने के समाचार न्यूज चैनलों की पर टीवी स्क्रीन पर रेग्युलर स्क्रॉल (पट्टी) चलना। राजस्थान उच्च न्यायालय की फटकार को झेलते प्रदेश के सर्वोच्च पदों पर बैठे अधिकारी। सरकार के चाणक्यों के फैसलों का इन्तजार करती सुरक्षा एजेंसियां। सब मजबूर, लाचार, बेचारगी की घुटन के साथ आठ दिन तक तनाव और आक्रोश के बीच गुरूवार की शाम राजस्थान सचिवालय से खुश-खबरी के साथ राहत की सांस और अच्छे दिनों की शुरूआत के साथ अगली सुबह सुनहरी किरणों की उम्मीद के साथ शुरू हुई।

गुर्जरों के बाद आन्दोलनों की कल्पना... : ईश्वर राजस्थान के जाटों, राजपूतों, ब्राह्मणों एवं ओबीसी की जातियों को आरक्षण की मांग मनवाने के लिए गुर्जर आन्दोलन से प्रेरणा लेने की सोच पैदा होने से रोकें, अन्यथा गुर्जर तो मात्र 50 किलोमीटर क्षेत्र में ही अपने को सुरक्षित मानते हैं, जबकि अन्य जातियां पूरे प्रदेश के गांव-ढ़ाणी तक करोड़ों की तादाद में फैली है। इन सभी जातियों ने गुर्जर आन्दोलन में राजस्थान सरकार की कानून-व्यवस्था, सरकार की मजबूरी, सुरक्षा बलों के बंधे हाथ, न्यायालय की आदेशों का माखौल उड़ते देखा है। राजस्थान के विकास में अपनी 'आहुति' दे रही अकेली मुख्यमंत्री वसुन्धरा राजे इन हालात में रिसर्जेंट राजस्थान में लाखों करोड़ के निवेश वाले 'एमओयू-साईन' भी करवा लें, तब भी मेरे राजस्थान का भविष्य कितना उज्जवल होगा, आप स्वयं ही अनुमान लगा लेवें।

बाहुबलियों के आगे कानून 'नतमस्तक' : आन्दोलन में बसें जलाओ, चाहे पटरियां उखाड़ो, पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों पर पथराव करो। जो सामने आये उसे मारो-पीटो। पुलिस चाहे सरकारी काम में बाधा का मुकदमा करे या राजद्रोह का मुकदमा बना लेवें। डरने के कोई बात नहीं। सरकार से जब भी समझौता वार्ता होगी सबसे पहली शर्त आन्दोलन के दौरान किये मुकदमे वापस लिये जायें और सरकार इस पहली शर्त को बिना तर्क दिये मान जाती है। बात गुर्जर आन्दोलन की नहीं है। इससे पहले भी जितने आन्दोलन हुए सभी में मुकदमे वापस लेने का फार्मूला लागू होता रहा है और यही कारण है कि आन्दोलनकारी सरकारी सम्पत्ति, जन-धन हानि बेहिचक करते हैं।

राजद्रोही बनाम देशभक्त : राजस्थान सचिवालय में राज्य के सर्वोच्च सुरक्षा एजेंसियों के मुखिया, कानून के रखवाले एटॉर्नी जनरल ऑफ राजस्थान, सरकार की मंत्री, सरकार चलाने वाले उच्च अधिकारियों के सामने की टेबल पर गुर्जर आन्दोलन में पुलिस द्वारा राजद्रोह के मुकदमों में अपराधी बनाये नामजद आरोपी समझोता वार्ता में अपनी शर्तें मनवा रहे थे और हमारी पूरी सरकार और सरकार के देशभक्त मंत्री, अधिकारी राजद्रोह के आरोपियों के सामने हाथ बांधे, सर झुकाये उनकी शर्तें स्वीकार कर रहे थे।

...कलम की नहीं कोई जाति : गुर्जर आन्दोलन की इस समीक्षा को एक पत्रकार की बेबाक कलम और लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ के धर्मपालन करने वाली नजर से पढ़ें। लेखक भले ही किसी जाति अथवा सम्प्रदाय का हो, लेकिन कलम की ना कोई जात होती है और ना कोई मजहब। पत्रकारिता की निष्पक्ष लेखनी में देशभक्ति, समाज की सुरक्षा की चिन्ता, कानून और प्रशासन के साथ न्यायालयों का सम्मान बनाये रखने के लिए पाठकों का ध्यानाकर्षण ही मुख्य उद्देश्य रहता है। पत्रकार की निष्पक्ष कलम को ही लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहा गया है और 2002 के गुजरात दंगों से लेकर मुजफ्फर नगर के दंगों तक मुसलमानों का पक्ष हिन्दू पत्रकारों, टीवी चैनलों ने ही रखा है। इसलिए पत्रकार जाति-मजहब से ऊपर उठकर समाज का सही दर्पण पाठकों तक पहुंचाने का प्रयास करता है।
- अब्दुल सत्तार सिलावट
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)


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