फिल्म समीक्षा : अच्छा प्रयास लेकिन, बेमानी उम्मीद 'म्हारे हिवड़ा में नाचे मोर'
https://khabarrn1.blogspot.com/2014/03/mhare-hiwda-me-nache-mor-will-prove-a-meaningless-hope.html
जयपुर (पवन टेलर)। निर्देशक चिंटू माहेश्वरी और निर्माता रचना अनिल पोद्दार की फिल्म 'म्हारे हिवड़ा में नाचे मोर' का जयपुर के गोलछा मल्टीप्लेक्स में ग्रैंड प्रीमियर किया गया, जिसमे फिल्म की स्टार कास्ट समेत पूरी टीम ने शिरकत की और फिल्म को पूरी तरह से तैयार होने के बाद सिल्वर स्क्रीन पर देखा तथा फिल्म में रहने वाली खामियों अथवा खूबियों के साथ-साथ अभिनय, निर्देशन, साउंड, पिक्चराइजेशन समेत फिल्म निर्माण की तमाम तकनीकों को परखा गया।
फिल्म को सिल्वर स्क्रीन पर देखने के बाद ऐसा महसूस हुआ कि फिल्म को राजस्थानी फिल्मों को फिर से जीवित करने की दिशा में मात्र एक हल्का प्रयास कहा जाना ही उचित होगा, क्योंकि फिल्म में इस्तेमाल की गई सभी तकनीकियाँ कहीं न कहीं किसी न किसी खामियों की वजह से पिट गई। मसलन, फिल्म में राजस्थान की बेहतरीन लोकेशन्स होने के बावजूद भी हलके विजुअलाइजेशन की वजह से लोकेशन्स का भरपूर इस्तेमाल नहीं किया जाना नजर आता है, जिसका प्रमुख कारण कैमरा और उसे इस्तमाल करने का तरीका है।
इसके अतिरिक्त फिल्म के अधिकांश हिस्सों में दिखाए गए दृश्यो में पात्रों का स्थिति के प्रतिकूल अभिनय, बॉडी लेंग्वेज और पहनावा भी फिल्म को हल्का बनाते हैं। मसलन, फिल्म के एक दृश्य में दो महिला पात्र साड़ी की एक दुकान पर साड़ी खरीदने के लिए जाती है तो, वहां साड़ी दिखाने वाले सेल्समेन को देखकर ऐसा प्रतीत होता है, जैसे वे सेल्समेन नहीं कोई सड़क छाप मवाली हो।
फिल्म की सफलता में अहम माने जाने वाला संगीत भी फिल्म में कोई खास असर नहीं दिखा सका। संतोष साल्वंकर की कॉरिओग्राफी में काफी हद तक अच्छा प्रयास दिखाई दिया, लेकिन म्यूजिक में राजस्थान का कर्णप्रिय संगीत होने के बावजूद भी कुछ नया और खास नजर नहीं आया। फिल्म के कुछ गानों में पहले से सुपरहिट हो चुके कुछ राजस्थानी गीतों को भी मिक्स किया गया है, जो सुनने में तो काफी कर्णप्रिय हैं लेकिन इनकी प्रस्तुति के लिए इस्तेमाल की गई पिक्चराइजेशन में कुछ कमी खलती है।
फिल्म में तीन दोस्तों की पारिवारिक कहानी है, जो काफी हद तक बॉलीवुड की फिल्म ‘नो एन्ट्री’ से मिलती जुलती है। फिल्म की शुरूआत एक अवार्ड समारोह से होती है, जिसमें सर्वश्रेष्ठ पति परमेश्वर का चयन किया जाता है। तीनों दोस्त अवार्ड पाने की हसरत लिए समारोह में सपने देखते हैं, लेकिन इनमें से एक दोस्त राज को यह अवार्ड मिलता है, जो फिल्म ‘नो एन्ट्री’ के सलमान खान की तरह ही एक दिलफैंक आशिक होता है और यहीं से शुरू होती है फिल्म की कहानी और तीनों दोस्तों के बीच आपसी खींचतान का सिलसिला।
भाषा की बात की जाए तो, फिल्म में राजस्थानी भाषा का इस्तेमाल बहुत ही अजीबो-गरीब तरीके से किया गया है। फिल्म के पात्र आपसी बातचीत में राजस्थानी भाषा के साथ अंग्रेजी का भी प्रयोग करते हैं, जो दर्शकों को खटक सकता है।
कुल मिलाकर फिल्म के बारे में इतना ही कहा जा सकता है कि कुछ नया और खास नहीं लेकिन राजस्थानी फिल्मों को पुनर्जीवित करने की दिशा में यह फिल्म मात्र एक हल्का प्रयास है, जिससे यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि राजस्थानी फिल्मों का गुजरा हुआ दौर फिर से वापस लाने में यह फिल्म कारगार भूमिका अदा करेगी।
फिल्म को सिल्वर स्क्रीन पर देखने के बाद ऐसा महसूस हुआ कि फिल्म को राजस्थानी फिल्मों को फिर से जीवित करने की दिशा में मात्र एक हल्का प्रयास कहा जाना ही उचित होगा, क्योंकि फिल्म में इस्तेमाल की गई सभी तकनीकियाँ कहीं न कहीं किसी न किसी खामियों की वजह से पिट गई। मसलन, फिल्म में राजस्थान की बेहतरीन लोकेशन्स होने के बावजूद भी हलके विजुअलाइजेशन की वजह से लोकेशन्स का भरपूर इस्तेमाल नहीं किया जाना नजर आता है, जिसका प्रमुख कारण कैमरा और उसे इस्तमाल करने का तरीका है।
इसके अतिरिक्त फिल्म के अधिकांश हिस्सों में दिखाए गए दृश्यो में पात्रों का स्थिति के प्रतिकूल अभिनय, बॉडी लेंग्वेज और पहनावा भी फिल्म को हल्का बनाते हैं। मसलन, फिल्म के एक दृश्य में दो महिला पात्र साड़ी की एक दुकान पर साड़ी खरीदने के लिए जाती है तो, वहां साड़ी दिखाने वाले सेल्समेन को देखकर ऐसा प्रतीत होता है, जैसे वे सेल्समेन नहीं कोई सड़क छाप मवाली हो।
फिल्म की सफलता में अहम माने जाने वाला संगीत भी फिल्म में कोई खास असर नहीं दिखा सका। संतोष साल्वंकर की कॉरिओग्राफी में काफी हद तक अच्छा प्रयास दिखाई दिया, लेकिन म्यूजिक में राजस्थान का कर्णप्रिय संगीत होने के बावजूद भी कुछ नया और खास नजर नहीं आया। फिल्म के कुछ गानों में पहले से सुपरहिट हो चुके कुछ राजस्थानी गीतों को भी मिक्स किया गया है, जो सुनने में तो काफी कर्णप्रिय हैं लेकिन इनकी प्रस्तुति के लिए इस्तेमाल की गई पिक्चराइजेशन में कुछ कमी खलती है।
फिल्म में तीन दोस्तों की पारिवारिक कहानी है, जो काफी हद तक बॉलीवुड की फिल्म ‘नो एन्ट्री’ से मिलती जुलती है। फिल्म की शुरूआत एक अवार्ड समारोह से होती है, जिसमें सर्वश्रेष्ठ पति परमेश्वर का चयन किया जाता है। तीनों दोस्त अवार्ड पाने की हसरत लिए समारोह में सपने देखते हैं, लेकिन इनमें से एक दोस्त राज को यह अवार्ड मिलता है, जो फिल्म ‘नो एन्ट्री’ के सलमान खान की तरह ही एक दिलफैंक आशिक होता है और यहीं से शुरू होती है फिल्म की कहानी और तीनों दोस्तों के बीच आपसी खींचतान का सिलसिला।
भाषा की बात की जाए तो, फिल्म में राजस्थानी भाषा का इस्तेमाल बहुत ही अजीबो-गरीब तरीके से किया गया है। फिल्म के पात्र आपसी बातचीत में राजस्थानी भाषा के साथ अंग्रेजी का भी प्रयोग करते हैं, जो दर्शकों को खटक सकता है।
कुल मिलाकर फिल्म के बारे में इतना ही कहा जा सकता है कि कुछ नया और खास नहीं लेकिन राजस्थानी फिल्मों को पुनर्जीवित करने की दिशा में यह फिल्म मात्र एक हल्का प्रयास है, जिससे यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि राजस्थानी फिल्मों का गुजरा हुआ दौर फिर से वापस लाने में यह फिल्म कारगार भूमिका अदा करेगी।