भारत में समलैंगिकता अपराध की श्रेणी में : सुप्रीम कोर्ट
नई दिल्ली। व्यस्कों के बीच समलैंगिक संबंध को अपराध की श्रेणी से हटाने वाले दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने आ...
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नई दिल्ली। व्यस्कों के बीच समलैंगिक संबंध को अपराध की श्रेणी से हटाने वाले दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने आज समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी में माना है। सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले के रद्द करते हुए समलैंगिकता को अपराध करार दिया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि भारतीय संविधान नें धारा 377 पर संसद फैसला करे।
उच्चतम न्यायालय ने कहा कि समलैंगिक संबंधों को उम्रकैद तक की सजा वाला अपराध बताने वाली भादंसं की धारा 377 में कोई संवैधानिक खामी नहीं है और भादंसं की धारा 377 को हटाने की वांछनीयता को देखने का काम विधायिका का है।
योग गुरु बाबा रामदेव के अलावा विभिन्न गैर सरकारी संगठनों की विशेष अनुमति याचिकाओं पर कोर्ट ने अपना महत्वपूर्ण फैसला दिया है। बाबा रामदेव और कुछ धार्मिक व गैर सरकारी संगठनों ने दिल्ली हाईकोर्ट के जुलाई 2009 के फैसले को यह कहते हुए चुनौती दी थी कि हाईकोर्ट का यह फैसला देश की संस्कृति के लिए खतरनाक साबित होगा।
याचिकाकर्ताओं की दलील थी कि भारत की संस्कृति पाश्चात्य देशों से अलग है और इस तरह के आदेश देश की सांस्कृतिक नींव हिला सकते हैं। उनकी यह भी दलील थी कि समलैंगिक संबंधों को कानूनी मान्यता नहीं दी जानी चाहिए, क्योंकि ये प्रकृति के खिलाफ भी है।
2009 में दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले की जहां अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सराहना हुई थी वहीं कई हिंदू और मुस्लिम संगठनों ने फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। इन संगठनों की दलील है कि ये गैरकानूनी, अनैतिक और भारतीय संस्कृति के के खिलाफ है।
कुछ संगठनों का यहां तक कहना है कि इससे भारतीय संस्कृति ही खतरे में पड़ जाएगी। इस मुद्दे पर सरकार का रुख भी पहले साफ नहीं था। 2012 में सुप्रीम कोर्ट के फटकार के बाद केंद्र सरकार को अब समलैंगिकता से कोई ऐतराज नहीं है। मार्च 2012 में अटॉर्नी जनरल ने सुप्रीम कोर्ट से कहा कि सरकार समलैंगिकों के मूल-भूत अधिकारों का सम्मान करती है।
इससे पहले गृह मंत्रालय समलैंगिकता के विरोध में था, जबकि स्वास्थ्य मंत्रालय इसके हक में। लॉ कमीशन ने भी कई बार सरकार से समलैंगिकता पर कानून बनाने की सिफारिश की थी।
उच्चतम न्यायालय ने कहा कि समलैंगिक संबंधों को उम्रकैद तक की सजा वाला अपराध बताने वाली भादंसं की धारा 377 में कोई संवैधानिक खामी नहीं है और भादंसं की धारा 377 को हटाने की वांछनीयता को देखने का काम विधायिका का है।
योग गुरु बाबा रामदेव के अलावा विभिन्न गैर सरकारी संगठनों की विशेष अनुमति याचिकाओं पर कोर्ट ने अपना महत्वपूर्ण फैसला दिया है। बाबा रामदेव और कुछ धार्मिक व गैर सरकारी संगठनों ने दिल्ली हाईकोर्ट के जुलाई 2009 के फैसले को यह कहते हुए चुनौती दी थी कि हाईकोर्ट का यह फैसला देश की संस्कृति के लिए खतरनाक साबित होगा।
याचिकाकर्ताओं की दलील थी कि भारत की संस्कृति पाश्चात्य देशों से अलग है और इस तरह के आदेश देश की सांस्कृतिक नींव हिला सकते हैं। उनकी यह भी दलील थी कि समलैंगिक संबंधों को कानूनी मान्यता नहीं दी जानी चाहिए, क्योंकि ये प्रकृति के खिलाफ भी है।
यह है पूरा मामला :
सुप्रीम कोर्ट में समलैंगिक रिश्तों का मामला पिछले 4 साल से चल रहा था। दिल्ली हाईकोर्ट ने 2 जुलाई, 2009 को भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के तहत समलैंगिक यौन संबंधों को अपराध के दायरे से मुक्त कर दिया था। इसके मुताबिक एकांत में दो व्यस्कों के बीच सहमति से स्थापित यौन संबंध अपराध नहीं होगा। गौरतलब है कि धारा 377 यानी अप्राकृतिक अपराध के तहत समलैंगिक यौन संबंध दंडनीय हैं। जिसके लिए उम्र कैद तक की सजा का प्रावधान है।2009 में दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले की जहां अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सराहना हुई थी वहीं कई हिंदू और मुस्लिम संगठनों ने फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी। इन संगठनों की दलील है कि ये गैरकानूनी, अनैतिक और भारतीय संस्कृति के के खिलाफ है।
कुछ संगठनों का यहां तक कहना है कि इससे भारतीय संस्कृति ही खतरे में पड़ जाएगी। इस मुद्दे पर सरकार का रुख भी पहले साफ नहीं था। 2012 में सुप्रीम कोर्ट के फटकार के बाद केंद्र सरकार को अब समलैंगिकता से कोई ऐतराज नहीं है। मार्च 2012 में अटॉर्नी जनरल ने सुप्रीम कोर्ट से कहा कि सरकार समलैंगिकों के मूल-भूत अधिकारों का सम्मान करती है।
इससे पहले गृह मंत्रालय समलैंगिकता के विरोध में था, जबकि स्वास्थ्य मंत्रालय इसके हक में। लॉ कमीशन ने भी कई बार सरकार से समलैंगिकता पर कानून बनाने की सिफारिश की थी।
