पण यो पाडो पैलां रे खूंटे नी बंध जावे

‘‘नान्यो नेतागिरियां कर रह्यो है तो करबा दे,  जनता को लोठ्यो भर रह्यो है तो भरबा दे,  पण जदैं आपणो पाडो, भैंस पराई चूख्यावे,  ई म कइं कुळ...

‘‘नान्यो नेतागिरियां कर रह्यो है तो करबा दे,  जनता को लोठ्यो भर रह्यो है तो भरबा दे,  पण जदैं आपणो पाडो, भैंस पराई चूख्यावे,  ई म कइं कुळ रे दाग लागणो है, पण यो पाडो पैलां रे खूंटे नी बॅध जावे,  अतरो’क ध्यान राखणो है।’’

आज के चुनावी परिप्रेक्ष्य में ऐसी जीवंत पंक्तियां कोई युग दृष्टा साहित्यकार ही कह सकता हेै जिसकी पकड़  समाज और व्यक्ति की उन तमाम मनोवृत्तियों पर पैनी हो।

ऐसे ही जीवंत कलमकार थे लोककवि मोहन मण्डेला। कहते हैं लोकरंजन से जुड़े व्यक्ति अपनी बातों और सर्जना से हमेशा याद किये जाते रहते हैं। जिन बातों को आम आदमी सोचता तो है पर कह नहीं पाता उन्हीं बातों को कवि सहजता से कह जाता है, जिसे सुनकर आम आदमी इतना आनंदित होता है जैसे उसकी मन चाही हो गई। लोककवि स्व.मण्डेला जिनकी आज 17वीं पुण्यतिथि है । वे इसी प्रकार की बातों के लिए जाने जाते रहे। गॉंधीजी के नाम की दुहाई देकर भ्रष्ट आचरण करने वाले नेताओ पर उनकी ये बेबाक पंक्तियां आपको उछलने पर मजबूर कर देगी।

‘‘गांधीजी, थां सत्य अहिंसा सबकुछ देग्या।
चेला थांका घणा सांतरा वेग्या।
पण थें थांको ऊ गेड्यो क्यूं नी देग्या?
आप जाण र्या हो बापू,
रीता हाथां की मजबूरी है।
ई गेड्या सूं यां गंडकां ने गडबो बौत जरूरी है।’’

आजादी के बाद संसाधनों का जिस तरीके से दुरूपयोग नेता और समर्थ लोग कर रहे हैं उस पर कवि मण्डेला का एक अंदाज इस चुनाव में आपको शायद सही को मत देेने पर विवष करे।

आज उजाळा रा मेळा म, तेल तूमड़ा देग्या ताळी।
ऊंधा पडय़ा दिवाण्या घर म, म्हांकी तो नंदगी दीवाळी।।
नत नागा तूवांरा भूखा, काया म कुरळाहट भरती।
मूंगा?सा रो सॉंप सूंघग्यो,हाटां म हटनाळां फरती।
गुड़ आकाशां चड़तो बोले, नौ का तेरह खांड्या करती।
घुसपेठृया गेंहूं बण बैठ्या, घी तेलां री बिगडी बरती।
मेहणत सारी खाग्यो ल्याळी।।
म्हांकी तो नंदगी दीवाळी।।

राजनीति नेता और चुनावों पर तो लोककवि की कलम की धार बेजोड़ रही। काव्य के सभी रसों पर समान रूप से सिद्ध कवि मण्डेला की कविताओं को सुनने में जितना रस आता उससे भी ज्यादा पढ़ने में ज्यादा मजा आता है। चनाव राजनीति पर उनकी एक लोक प्रसि़द्ध रचना लंबी व्यंग्या रचना ‘चंदण रा मूठ्या’ का एक बंद दृष्टव्य है-

‘‘हां सा मौज उडा रह्यो हूं।
थांका चंदण का मूंठ्या नै घस घस कर तिलक लगार्यो हूं।
जनता जामण जी जाणो थां, भोपा ही भोग लगावे जी।
आजादी मंदर म बैठ्या, कुण रीता शंख बजावे जी।
माथा पर हाथ सदा थांको, क्यूं मनां अमूझण आवे जी।
क्यूं हाथां बोया आंबा ने, जनता बंबूळ बतावे जी।
तो सुणल्यो ढीली धोत्याओं, म्ह कांटा अस्या बिछार्यो हूं।
म्हारी हेली की छायां म, थां घर रा बॉंस गिणार्यो हूं।।’’
भाटा रा भैंरूजी’, मिनिस्टर री मांदगी, उद्घाटन, घीस्यो बाबो, नेताजी, आदि अनेक कविताओं में लोककवि का अंदाजे बयां और है। बड़ी उम्र में भी पद का मोह नही छोडऩे वाले बूढ़े नेताओं को एक सीख देखें-
‘‘थां साठ्या बरणाठ्या होग्या, अब या तिछना क्यांकी?
ऊमर गळगी ऐष मांयने, अब कांई रहग्यो बाकी?
पाप पुन्न री झूठी सांची, जाणे काया थांकी।
किणने ठूंठ्या किणने लूट्या,बातां अब सुणबा की।
रहम करो जनता पर अब थां, राज रिसी हो जाओ।
नुवी पौध नै औसर देवो, थांको टिकट कटाओ।।’’

जहां न पहुंचे रवि वहां पहुंचे कवि वाली बात स्व. मण्डेला की कविताओं से परिलक्षित होती है। हर विषय पर लिखने वाले ऐसे दिग्गज कवि के खजाने में हर अवसर के मोती भरे पड़े हैं, जिन्हें सदैव याद किया जाएगा।

यह संदर्भ सामग्री स्व. मोहन मंडेला के पुुत्र कवि डा. कैलाश मंडेला ने मुहैया कराई है।



मूलचन्द पेसवानी, शाहपुरा


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