तब और अब : श्री हीन होती पत्रकारिता
https://khabarrn1.blogspot.com/2016/10/journalism-losting-its-own-real-value-today.html
देश आज संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। हर विषय विवाद का कारण और हर संस्था विवाद का केंद्र बन रही है। ऐसा लगता है कि देश सर्वानुमति की मान्यताओं को लाँघ कर वैचारिक प्रतिस्पर्धा के युग में प्रवेश कर चुका है। यह प्रतिस्पर्धा हमारी प्राचीन शास्त्रार्थ परम्परा को अमान्य कर वैचारिक संघर्ष में बदल गया है। आमतौर पर श्रमजीवी को जमीनी स्तर पर शारीरिक बल का प्रयोग करते देखा जाता है, लेकिन आज बुद्धिजीवी भी वैचारिक द्वन्द को छोड़ कर अपने विचारों के प्रतिस्थापन के लिए शारीरिक क्षमताओं का प्रयोग करने लगा है। यही संक्रमण का काल है। यह ऐसा काल है, जिसमें व्यक्ति को अपनी क्षमताओं और बुद्धि कौशल पर विश्वास कम हो जाता है और वह दूसरे साधनों का सहारा लेने लगता है।
सृष्टि के चक्र में ऐसा काल नियमित तौर पर आता रहा है, जब समय के साथ सामाजिक मान्यताओं को बदला जाता है। यह ऐसा काल होता है जब पुराने नियम टूटते है, नई रचना होती है, समाज के बीच पुराने और नए का संघर्ष शुरू होता है। ऐसा सतयुग में हुआ ऐसा त्रेता और द्वापर में भी हुआ और कलियुग तो लगातार इन परिवर्तनकारी घटनाओं का साक्षी है.हमारा देश भी सदियों से युगानुकूल परिवर्तन से परिचित रहा है। इस देश ने अपने स्वर्णिम काल से लेकर गुलामी के दंश को सहा है, लेकिन हर परिवर्तन में देश बड़ी कुशलता के साथ मजबूती से उभर कर आया है।
देश के सामने परिवर्तन या संक्रमण चिंता का कारण नहीं, लेकिन चिंता का कारण संक्रमण के वाहकों को लेकर है। भारत की समाज व्यवस्था में संत समाज, शिक्षक, और पत्रकार संक्रमण के वाहक है। इस देश में आज़ादी की लडाई हो या, आपातकाल की तानाशाही, भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष हो या सामाजिक बुराइयों के खिलाफ जागरूकता देश के पत्रकारों ने परिवर्तन के वाहक बनकर देश को संक्रमण से निकाला। देश की आज़ादी के समय लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, वीर सावरकर गोखले , गणेश शंकर विद्यार्थी, भगत सिंह आदि ने अपनी लेखनी से जोहर की ज्वाला को जला दिया था, उनके आह्वान पर देश की तरुणाई देश पर अपना सर्वस्व कर रही थी। इसी लेखनी का कमाल था की थका हारा हज़ार साल की गुलामी से पिसा भारत नई उर्जा लेकर अंग्रेजों से भिड गया था, उन अंग्रेजों से जिनके साम्राज्य में सूरज कभी नहीं डूबता था।
पत्रकारों की कर्मठता उनके श्री का ही प्रभाव था जिनसे प्रेरित होकर भारत की जनता ने अंग्रेजों के सूरज को डुबो दिया। यह संभव हुआ उस समय के पत्रकारों की निर्भीकता के कारण, उनके समर्पण, त्याग और राष्ट्र निष्ठा के कारण, उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता, श्रमशीलता के कारण। वे लोग आर्थिक संकटों में रहे लेकिन, पूंजी उन्हें गुलाम नहीं बना सकी।
लेकिन आज देश जब संक्रमण के दौर से गुजर रहा है, देश का पत्रकार श्रीहीन होकर झूट के आवरण में फंस गया है। लगता है धन के प्रभाव से मुक्त रहने वाला पूंजीपति का गुलाम हो गया है, कभी सत्ता को अपने त्याग से ललकारने वाल पत्रकार राजसत्ता का पिपासु हो गया है। राष्ट्र और समाज के लिए ऐश्वर्य को किनारे करने वाला पत्रकार ऐश्वर्य का साधक बन गया है। अपने वैचारिक आधार को ख़त्म कर धन और राज का विदूषक बन गया है। पत्रकार और पत्रकारिता के गिरते स्तर ने देश के सामने एक विषम परिस्थिति उत्पन्न कर दी है। संक्रमण-काल के संभ्रमित वातावरण में देश जब मार्गदर्शन की अपेक्षा से बुद्धिजीवी पत्रकारों की और ताकता है तो उसे निराश होना होता है। यहां तक कि जब देश का एक मंत्री पत्रकारों को presstitute कहकर पत्रकारों की वेश्या से तुलना करता है, तो सोशल मीडिया में मंत्री के समर्थन में बाढ़ आ जाती है। इसी तरह जब एक पत्रकार अमेरिका में झड़प का शिकार होता है तो जनता उस पत्रकार को ही दोषी मानती है और देश को अपमानित करने का आरोप लगाती है।
पत्रकार इसलिए आज संक्रमण का वाहक नहीं रहा है, जनता में विश्वसनीयता नहीं रही है, धन और सत्ता की चकाचोंध में त्याग और समर्पण की श्री निकल गई है, श्री विहीन पत्रकार अब युगानुकूल परिवर्तन का अवरोधक बन गया है। हमारे सामने यही सवाल है क्या यह देश के लिए संकट का काल नहीं है? एक पूरी व्यवस्था जो जन आकान्शाओं की अभिव्यक्ति का माध्यम थी चंद लोगों की गुलाम हो गई, एक व्यवस्था जो राजनेताओं को जमीन पर टिके रहने को मजबूर करती थी खुद हवा में उड़ गई, एक व्यवस्था जो लोकशाही का आधार थी, वह अपनी धुरी से खिसक गई। हम इस हालात को कब तक सहते रहेंगे?
समय आ गया है पत्रकार के श्री को वापस लाने का, लेकिन इसके लिए त्याग ,समर्पण राष्ट्र निष्ठां की जरूरत है। हमें अपने पूर्वज पत्रकारों के जीवन से प्रेरित होकर धन की गुलामी से मुक्त होना होगा। श्री की उपासना त्याग मांगती है. देश को संक्रमण के इस दौर में ऐसे वाहकों की जरूरत है जिनका जीवन आदर्श जनता को प्रेरित कर सके और जिनकी लेखनी जनता के दिल में ज्वाला जला सके।
वरिष्ठ पत्रकार एवं India News Rajasthan के Resident Editor प्रताप राव की फेसबुक वॉल से साभार।
सृष्टि के चक्र में ऐसा काल नियमित तौर पर आता रहा है, जब समय के साथ सामाजिक मान्यताओं को बदला जाता है। यह ऐसा काल होता है जब पुराने नियम टूटते है, नई रचना होती है, समाज के बीच पुराने और नए का संघर्ष शुरू होता है। ऐसा सतयुग में हुआ ऐसा त्रेता और द्वापर में भी हुआ और कलियुग तो लगातार इन परिवर्तनकारी घटनाओं का साक्षी है.हमारा देश भी सदियों से युगानुकूल परिवर्तन से परिचित रहा है। इस देश ने अपने स्वर्णिम काल से लेकर गुलामी के दंश को सहा है, लेकिन हर परिवर्तन में देश बड़ी कुशलता के साथ मजबूती से उभर कर आया है।
देश के सामने परिवर्तन या संक्रमण चिंता का कारण नहीं, लेकिन चिंता का कारण संक्रमण के वाहकों को लेकर है। भारत की समाज व्यवस्था में संत समाज, शिक्षक, और पत्रकार संक्रमण के वाहक है। इस देश में आज़ादी की लडाई हो या, आपातकाल की तानाशाही, भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष हो या सामाजिक बुराइयों के खिलाफ जागरूकता देश के पत्रकारों ने परिवर्तन के वाहक बनकर देश को संक्रमण से निकाला। देश की आज़ादी के समय लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, वीर सावरकर गोखले , गणेश शंकर विद्यार्थी, भगत सिंह आदि ने अपनी लेखनी से जोहर की ज्वाला को जला दिया था, उनके आह्वान पर देश की तरुणाई देश पर अपना सर्वस्व कर रही थी। इसी लेखनी का कमाल था की थका हारा हज़ार साल की गुलामी से पिसा भारत नई उर्जा लेकर अंग्रेजों से भिड गया था, उन अंग्रेजों से जिनके साम्राज्य में सूरज कभी नहीं डूबता था।
पत्रकारों की कर्मठता उनके श्री का ही प्रभाव था जिनसे प्रेरित होकर भारत की जनता ने अंग्रेजों के सूरज को डुबो दिया। यह संभव हुआ उस समय के पत्रकारों की निर्भीकता के कारण, उनके समर्पण, त्याग और राष्ट्र निष्ठा के कारण, उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता, श्रमशीलता के कारण। वे लोग आर्थिक संकटों में रहे लेकिन, पूंजी उन्हें गुलाम नहीं बना सकी।
लेकिन आज देश जब संक्रमण के दौर से गुजर रहा है, देश का पत्रकार श्रीहीन होकर झूट के आवरण में फंस गया है। लगता है धन के प्रभाव से मुक्त रहने वाला पूंजीपति का गुलाम हो गया है, कभी सत्ता को अपने त्याग से ललकारने वाल पत्रकार राजसत्ता का पिपासु हो गया है। राष्ट्र और समाज के लिए ऐश्वर्य को किनारे करने वाला पत्रकार ऐश्वर्य का साधक बन गया है। अपने वैचारिक आधार को ख़त्म कर धन और राज का विदूषक बन गया है। पत्रकार और पत्रकारिता के गिरते स्तर ने देश के सामने एक विषम परिस्थिति उत्पन्न कर दी है। संक्रमण-काल के संभ्रमित वातावरण में देश जब मार्गदर्शन की अपेक्षा से बुद्धिजीवी पत्रकारों की और ताकता है तो उसे निराश होना होता है। यहां तक कि जब देश का एक मंत्री पत्रकारों को presstitute कहकर पत्रकारों की वेश्या से तुलना करता है, तो सोशल मीडिया में मंत्री के समर्थन में बाढ़ आ जाती है। इसी तरह जब एक पत्रकार अमेरिका में झड़प का शिकार होता है तो जनता उस पत्रकार को ही दोषी मानती है और देश को अपमानित करने का आरोप लगाती है।
पत्रकार इसलिए आज संक्रमण का वाहक नहीं रहा है, जनता में विश्वसनीयता नहीं रही है, धन और सत्ता की चकाचोंध में त्याग और समर्पण की श्री निकल गई है, श्री विहीन पत्रकार अब युगानुकूल परिवर्तन का अवरोधक बन गया है। हमारे सामने यही सवाल है क्या यह देश के लिए संकट का काल नहीं है? एक पूरी व्यवस्था जो जन आकान्शाओं की अभिव्यक्ति का माध्यम थी चंद लोगों की गुलाम हो गई, एक व्यवस्था जो राजनेताओं को जमीन पर टिके रहने को मजबूर करती थी खुद हवा में उड़ गई, एक व्यवस्था जो लोकशाही का आधार थी, वह अपनी धुरी से खिसक गई। हम इस हालात को कब तक सहते रहेंगे?
समय आ गया है पत्रकार के श्री को वापस लाने का, लेकिन इसके लिए त्याग ,समर्पण राष्ट्र निष्ठां की जरूरत है। हमें अपने पूर्वज पत्रकारों के जीवन से प्रेरित होकर धन की गुलामी से मुक्त होना होगा। श्री की उपासना त्याग मांगती है. देश को संक्रमण के इस दौर में ऐसे वाहकों की जरूरत है जिनका जीवन आदर्श जनता को प्रेरित कर सके और जिनकी लेखनी जनता के दिल में ज्वाला जला सके।
वरिष्ठ पत्रकार एवं India News Rajasthan के Resident Editor प्रताप राव की फेसबुक वॉल से साभार।